Saturday, July 2, 2011

नन्हा-सा बच्चा...!


तन्हाईयों से थे अनजान जब,
कभी न रहती रातें वीरान तब,
निश्चल सा होता मन 
कोई चेहरा न होता बंद आँखों में,
आगोशी  का अर्थ तब छिप 
जाना माँ के आँचल में होता,
होती थी इक अजब-सी मिठास 
जब चूमती बहनें गालों को,
भाइयों से झगड़ना कभी
स्वाभिमान पर चोट न होता,
दारासिंग से कोई टक्कर ले सकता 
था तो वो सिर्फ मेरे पापा होते,
मिल जाते कभी किसी से दस पैसे
तो जिंदगी उमंगों से भर जाती,
दसों उँगलियों में होती नल्लियाँ
और भाई-बहनों को ललचाने 
की बारी अब हमारी होती,
नई किताबों की खुशबू और बारिश में 
मिट्टी की भीनी-भीनी महक से 
मानों जीवन सार्थक-सा हो जाता,
दोस्तों का अर्थ उस समय 
होता सारा मोहल्ला और 
पूरी-की-पूरी कक्षा,
ये वो किस्सा है जब मैं था 
इक छोटा-सा, प्यारा-सा 
नन्हा-सा बच्चा...!

- दिनेश सरोज


छवि साभार: गूगल छवि 

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