Saturday, July 30, 2011

ये जो यादें होती हैं, बचपन की

वो बातें बड़ी सुहानी होती हैं,
जिनमे बचपन की
मधुर कहानी होती है |

वो आती हैं याद कुछ
ऐसी महक लेकर,
फिर चली जाती हैं,
मीठा-मीठा सा
प्यारा अहसास देकर |

ये जो यादें होती हैं,
बचपन की, लड़कपन की,
बिन फूलों, बिन गुलदस्तों के,
महका जाती है
बगिया जीवन की|

सच वो बातें बड़ी
सुहानी होती हैं,
जिनमे बचपन की
मधुर कहानी होती है |

- दिनेश सरोज

 छवि साभार: गूगल छवि 

Thursday, July 21, 2011

मुंबई लोकल

न होगी फिकर तुझे
तेरी जिंदगी की,
तो कोई बात नहीं |

पर चिंता उन्हें तेरी जरुर होगी,
जिन्हें तू घर भूल आया है |

लटकते रहे यूँ ही तो,
जिंदगी भी तेरी लटकती रहेगी |

तेरे चले जाने के बाद,
तेरे अपनों की जान फिर
ताउम्र तड़पती रहेगी |

जी ले जी भर कर संग
अपनों के, कौन जाने
ये जिंदगी फिर रहे न रहे |

- दिनेश सरोज
 छवि साभार: गूगल छवि 

Monday, July 18, 2011

मेरी नजरें


अब भी नहीं थमा,
वो तेरी और मुड़ जाना
मेरी नज़रों का,

तुझे देखते ही नजरें 
मेरी अब भी
मचल जाती हैं,

फर्क सिर्फ इतना सा है
तब पलकें उठ-उठ कर
तुझे देखा करती थीं,

अब इन आंसुओं को
छुपाने का सब से
जतन किया करती हैं...!

- दिनेश सरोज

Friday, July 15, 2011

स्वछंद हो, निर्भय हो उड़ सकूँ...





स्वछंद हो, निर्भय हो उड़ सकूँ,
इस विशाल आकाश औ'
हरित वसुंधरा के बीच,
बस यही तो सोचा था हमने...

फिर सकूँ इन वादियों में,
जी चाहे जहाँ तक, जब तक,
कहीं मुझे कोई रोक-टोक न हो,
संग जुड़े मेरे, जो भी चाहे बिना झिझके...

मेरी बोली, मेरे पहनावे, मेरी रंगत से,
कोई न डरे, न सहमे, न सकुचाये,
कोई गली-मोहल्ला, कोई चौराहा या बाज़ार,
किसी खास तबके का होकर न रह जाये...

दो पल क्यों न सुकून से हम जिएं,
जब कभी राह चलते प्यास लगे,
जो घर सामने पड़े वहाँ पानी पीनें से,
हमारा धर्म, जाती, सोच हमें न रोके...

- दिनेश सरोज


छवि साभार: गूगल छवि 

Wednesday, July 6, 2011

जो उनके मदहोशी में खोये न होते कभी...!



महसूस न किया होता अपने
दिल की धडकनों को कभी,
उनके दिदार ने धड़कनों को
जो कभी रोका न होता,

बढ़ चले होते संग
कारवां के हम भी,
जो उनके मदहोशी में
खोये न होते कभी...!

- दिनेश सरोज

छवि साभार

Saturday, July 2, 2011

नन्हा-सा बच्चा...!


तन्हाईयों से थे अनजान जब,
कभी न रहती रातें वीरान तब,
निश्चल सा होता मन 
कोई चेहरा न होता बंद आँखों में,
आगोशी  का अर्थ तब छिप 
जाना माँ के आँचल में होता,
होती थी इक अजब-सी मिठास 
जब चूमती बहनें गालों को,
भाइयों से झगड़ना कभी
स्वाभिमान पर चोट न होता,
दारासिंग से कोई टक्कर ले सकता 
था तो वो सिर्फ मेरे पापा होते,
मिल जाते कभी किसी से दस पैसे
तो जिंदगी उमंगों से भर जाती,
दसों उँगलियों में होती नल्लियाँ
और भाई-बहनों को ललचाने 
की बारी अब हमारी होती,
नई किताबों की खुशबू और बारिश में 
मिट्टी की भीनी-भीनी महक से 
मानों जीवन सार्थक-सा हो जाता,
दोस्तों का अर्थ उस समय 
होता सारा मोहल्ला और 
पूरी-की-पूरी कक्षा,
ये वो किस्सा है जब मैं था 
इक छोटा-सा, प्यारा-सा 
नन्हा-सा बच्चा...!

- दिनेश सरोज


छवि साभार: गूगल छवि