Saturday, November 14, 2009

कसौटी


चाहे कितना भी वक़्त गुजार ले,
कोई किसी के संग इक छोटी-सी कसौटी,
खोल देती है सबकी आँखें बंद!
बड़े-बड़े दावे कर लेते हैं साथ निभाने की,
पर इक छोटी सी शंका झंकझोर देती है,
हर मजबूत रिश्तों की बुनियाद!
जिन्हें कभी अपना जाना करते थे,
जिनमें हमारा सारा जमाना था,
फिर अचानक बदल जाता है,
दोस्ती का वो सुहाना अहेसास!
रिश्तों में जाने कहाँ से,
जाती है फिर खटास,
पर दोस्ती तो वो है जो कभी,
दिखाई, सुनाई या जतायी नहीं जाती,
दोस्ती तो बस निभाई और,
बस.. महसूस की जाती है!!!

- दिनेश सरोज'

Thursday, August 6, 2009

गम-ऐ-मुहब्बत

"गम-ए-मुहब्बत हमें भी था -
और शायद उन्हें भी...

दिल का लगाना खेल तो नहीं था -
मुहब्बत उनसे आज भी है...

आज दूर ही सही हमसे फिरभी -
वो हमारे जज्बात में तो है..."

@ Dins'

Tuesday, August 4, 2009

दोस्ती क्या है

दोस्ती होती नहीं दो-चार मुलाकातों से,
ना ही होती ये कुछ-एक ज़ज्बातों से!
औ' न ही प्यार जताने से!
दोस्ती क्या है ये तुम खुद जान जाओगे,
जब बंद आँखों में हमें ही पाओगे!


@ Dins'

Wednesday, July 29, 2009

तू रहेगा जिन्दा सदा हमारे दिलों में!!!

तेरी खुशबु इस धारा पर सदा ही महकती रहेगी,

अस्मां भी तेरे शान की गवाही देगा सदा,

तू रहे रहे जहाँ में लेकिन बन्दे,

तेरा वजूद हर-इक दिल में धड़कता रहेगा,

तू रहेगा जिन्दा सदा हमारे दिलों में,

ये चमन बिखेरता रहेगा तेरी रवानी जहाँ में,

भौंरे तेरे मौज का संगीत सुनाते रहेंगे,

तेरा हाथ रहे रहे फिर मेरे हाथ में कभी,

उसकी पकड़ मेरे साथ सदा रहेगी,

कायनात का हर जर्रा सुनाएगा तेरी दास्ताँ,

तेरी हुकूमत में औलिया भी सर नवाजेंगे|

@ Dins'

Saturday, July 25, 2009

आत्ममंथन

चले जायेंगे जब यहाँ से,
सोचा है के याद आएंगे,
इस जहाँ को किस तरहा से?

जिए तो हम खूब अपनी जिंदगी,
अरे! क्या कभी देखा है,
मुफ़लिसों की बस्ती?


सभी अपनें तो है करीब मेरे,
पर किसे होगी मेरी कमी,
क्या कभी
ये पूछा है खुदसे?

हमारी तो बड़ी खुश-हाल
है जिंदगी,
क्या है तुम्हारा गम कभी,
पूछा है किसी से?

जिसे भी चाहा वो मेरे साथ है,
पर उसने क्या चाहा,
कभी तुमनें जाना है?

हम तो है आजाद पंछी,
कभी सोचा है तुमनें,
की क्या होती है दासता?

@ Dins'

Monday, June 29, 2009

आओ संग चलें... बढे चलें...

बनती नहीं है मीनारें ख्वाब सजाने भरसे,
जाने कितने धन, वक्त और बल,
उन्हें बानाते-सजाते, लग जाते हैं!

ख्वाब सजती तो है दो आँखों में पहले,
पर चमचमाती है जब कई आंखों में,
तो साकार होने के पथ पर चल पड़ती है!

दो पग बढ़ते है पगडण्डी से हो गुजर,
कई पग मिल-संग जब बढाते कदम,
ईक राह नई, आप ही बनती चली जाती है!

कुछ धारा मिलकर आगे नदी बन जाती,
मिलकर कई नदियाँ जब एक होती हैं,
तो समंदर की असीम गहराई बन जाती हैं!

पाषाण टकराए कहीं तो चिंगारी निकली,
मिली लकडी से तो हुई प्रज्वलित अग्नि,
फैली जो सारे वन तो दावानल बन जाती है!

@ Dins'

Monday, March 30, 2009

जाने क्या...

अब, तब, जब...
ना जाने कब?
जो कुछ खोया,
क्यों खोया?
जो कुछ मिला,
कैसे मिला?
था अपना क्या?
क्या है पराया?
है धर्म-अधर्म,
क्या कर्म-काण्ड?
है क्यों व्याधि-विपदा?
सुख, सन्साधन,
और क्या एश्वर्य?
क्या है फलित-चलित,
जाने क्या साश्वत?
क्या है गोचर ग्रहों का,
कौन जाने क्या योनि का?
जो आया उसे तो,
चले ही जाना है!
चले ही जाना तो,
फिर आना ही क्यों?
जीवन-मृ॒त्यु,
लोक-परलोक,
काय-परकाया,
क्या है इनका मर्म?
नहीं जो अभी,
तो होगा वो कब?
है जो वो कब तक?

@ Dins'

Saturday, March 28, 2009

संवेदना

कस्म-कश, तन्हाई, उलझन,सिहरन,
बंदिसे, कोशिशें, घुटन, चुभन,
जाने किन-किन संवेदना से अब,
और गुजरना पड़ेगा?

हर उस आस को जो कभी,
पूरी होती सी-लगती है,
जाने कब-कब टूट कर,
इधर-उधर बिखरना पड़ेगा!

हर कोशिश चरम तक पहुंचे,
अपना एक मकाम बनाये,
उससे पहले जाने और कितनी बार,
फिरसे पहला कदम बढ़ाना होगा!

अपेच्छाएँ फलित हो तब तक,
उपेक्षाओं का सामना,
करने का साहस अब और,
कब तक बांधना पड़ेगा!

कर्म-काण्ड और प्रारब्ध के,
घेरों में घिरे हुए हैं इनसे,
बाहर निकलने का रास्ता जाने,
कब तक और तलासना पड़ेगा!

जीवन-मृत्यु के बिच का,
दल-दल है ये संसार,
इस चक्कर में जाने और,
कितना जुन्झना पड़ेगा!

सुकून से जीने को तरसे बहुत,
जतन किये कई सारे लेकिन,
सुकून इस जीवन में क्या जाने,
अब, किस क्षण पधारेगा...!

@ Dins'

Thursday, March 19, 2009

कशिश


एक होड़ सी लगी रहती है -
समंदर की लहरों में सदा,
रहतीं हैं सदा वे कश्म-कश में,
की हममें से कौन चूमेगा -
निराले साहिल को सबसे पहले!
अपनी मौजों में वे मस्त -
रहती हैं सारी राह,
अक्सर ही रहतीं हैं डूबी हुई,
ख्यालों में सुहाने ...
मिलन वो होगा कैसा उनके साथ?
राह भर करती रहती है अठखेलियाँ,
नहीं करती परवाह वे उन -
आँधियों का अक्सर जो,
बदल देना चाहते हैं उनके राहों को...
जानती हैं बखूबी वे, की मिलन -
साहिल से उनका है क्षणिक लेकिन,
कशिश को अपने कम वो कभी,
भी होने नहीं देतीं...

@ Dins'

Tuesday, March 10, 2009

देखो-रे-देखो वो आया होली !

देखो-रे-देखो वो आया होली !
रंगो, उमंगों, खुशियों का त्योहार!
दिल में है ढेरों उमंग भरी,
पिचकारी में है रंग भरी !
करते हैं वो देखो -
सभी का चेहरा लाल!
सभी उडाते अबीर-गुलाल,

देखो-रे-देखो वो आया होली !
रुठे दिलों को मिलाने का त्योहार!
भुल के सारे गिले-शिकवे पिछडे-
आओ मनाये आज मिल कर होली,
कर सुनहरे रंगो की बौछार,
जीत लो सबके दिलों को यार!

देखो-रे-देखो वो आया होली !
आस्था, विस्वास, सच्चाई का त्योहार!
बुराई पर सच्चाई की जीत का त्योहार!

- दिनेश सरोज!

~: आप सभी को होली की ढेरों शुभकामना!! :~

Thursday, February 26, 2009

~: फुरसत कहाँ :~

गुजर जाते थे लम्हों-पे-लम्हें '
हमें वक्त का अंदाज़ ही चलता था,
पर अब है फुरसत कहाँ जो हम,
वक्त निकालें यारों खातिर|
तब होती थी गुफ्तगू अक्सर -
दिन कट जाते थे बातों ही बातों में,
अब तो महीनों-महीनें गुजर जाते हैं,
'हमें फुरसत नहीं पल भर भी-
यारों से एक मुलाक़ात का|


@ Dins'

Sunday, February 15, 2009

दिल में है आज भी तेरी याद !

हैं यादें उसकी जहन में मेरे -
आज भी बसी कहीं|
है पकड़ उसके बाँहों की -
आज भी मेरे आगोश में|
है पड़ती सुनाई मुझे -
अब भी कहीं,
उसकी मीठी आवाज|
पर नजर नहीं आती कहीं -
उसकी वो हसीं मुस्कान|
उसकी शरारत को मैं -
तरसता सा हूँ अक्सर|
ख्वाबो में मेरे हर रात -
आते हैं मंजर,
जो गुजरे थे उसके साथ|
भाई जान ले -
इस दिल में मेरे है बरकरार,
आज भी तेरी याद !

@ Dins'

Saturday, February 14, 2009

अपने-पराये!

मैं मजबूर तो नहीं, लेकिन,
पर हाँ, जरूरतमंद हूँ शायद|
इस बेगैरत दुनिया में,
मैं गैरतमंद हूँ शायद|
मुझे नहीं है आस -
किसी के साथ की,
इन राहों पर चलना -
अकेले,
मैंने सिख लिया है अब|
वो जो अपने थे,
बहुत खास थे,
आज रखते हैं सम्बन्ध -
तो बस व्यवहार भर के लिए|
पराये तो बदले, पराये थे -
वो अब भी पराये ही हैं|
किन्तु, जो अपने थे कभी -
अब, वो पराये से लगने लगे हैं|
इस संसार में आये थे अकेले,
और अकेले ही तो जाना है|
औ' यहाँ जो मिले-बिछडे सबसे,
यही तो यहाँ का फ़साना है|

@ Dins'