स्वछंद हो, निर्भय हो उड़ सकूँ,
इस विशाल आकाश औ'
हरित वसुंधरा के बीच,
बस यही तो सोचा था हमने...
फिर सकूँ इन वादियों में,
जी चाहे जहाँ तक, जब तक,
कहीं मुझे कोई रोक-टोक न हो,
संग जुड़े मेरे, जो भी चाहे बिना झिझके...
मेरी बोली, मेरे पहनावे, मेरी रंगत से,
कोई न डरे, न सहमे, न सकुचाये,
कोई गली-मोहल्ला, कोई चौराहा या बाज़ार,
किसी खास तबके का होकर न रह जाये...
दो पल क्यों न सुकून से हम जिएं,
जब कभी राह चलते प्यास लगे,
जो घर सामने पड़े वहाँ पानी पीनें से,
हमारा धर्म, जाती, सोच हमें न रोके...
- दिनेश सरोज
छवि साभार: गूगल छवि
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