मैं मजबूर तो नहीं, लेकिन,
पर हाँ, जरूरतमंद हूँ शायद|
इस बेगैरत दुनिया में,
मैं गैरतमंद हूँ शायद|
मुझे नहीं है आस -
किसी के साथ की,
इन राहों पर चलना -
अकेले,
मैंने सिख लिया है अब|
वो जो अपने थे,
बहुत खास थे,
आज रखते हैं सम्बन्ध -
तो बस व्यवहार भर के लिए|
पराये तो न बदले, पराये थे -
वो अब भी पराये ही हैं|
किन्तु, जो अपने थे कभी -
अब, वो पराये से लगने लगे हैं|
इस संसार में आये थे अकेले,
और अकेले ही तो जाना है|
औ' यहाँ जो मिले-बिछडे सबसे,
यही तो यहाँ का फ़साना है|
@ Dins'
पर हाँ, जरूरतमंद हूँ शायद|
इस बेगैरत दुनिया में,
मैं गैरतमंद हूँ शायद|
मुझे नहीं है आस -
किसी के साथ की,
इन राहों पर चलना -
अकेले,
मैंने सिख लिया है अब|
वो जो अपने थे,
बहुत खास थे,
आज रखते हैं सम्बन्ध -
तो बस व्यवहार भर के लिए|
पराये तो न बदले, पराये थे -
वो अब भी पराये ही हैं|
किन्तु, जो अपने थे कभी -
अब, वो पराये से लगने लगे हैं|
इस संसार में आये थे अकेले,
और अकेले ही तो जाना है|
औ' यहाँ जो मिले-बिछडे सबसे,
यही तो यहाँ का फ़साना है|
@ Dins'
दिनेश जी
ReplyDeleteसत्य को कहती हुए है आपकी कविता
अकेले ही आए और अकेले ही जान है, सब कोई समझ जाते हैं इस बात को अंत आते आते.
अची अभिव्यक्ति है