Friday, October 15, 2010

आस! इक मिलन कि...

 
दिल्लगी न कर सके कभी,
ना हम कोई खता ही कर सके,
खुमार तो चढ़ा था बहुत पर,
हम तो दिवानगी भी न कर सके|

बेचैन हुए तो खूब फिर भी,
आवाज उन्हें न लगा सके,
कहने को उनसे -
मन में गढ़ी बातें भी ढेरों,
कुछ भी तो उनसे कह न सके|

नज़रें टकराई तो कई बार,
पर नज़र हम मिला न सके,
वो तो खिल-खिलाये -
कई दफा मगर,
हम तो मुस्कुरा भी न सके|

कुछ कदम चले भी इक राह,
इस पर भी हमराह उन्हें -
बना न सके,
आये थे बेहद करीब भी कभी,
पर बात दिल कि कह न सके|

गम करना चाहते थे कभी -
न मिल पाने का उनसे,
फिर मिलने कि इक -
आस के चलते,
कमबख्त वो भी न कर सके|

दिनेश'

छवि साभार: गूगल छवियां 

No comments:

Post a Comment