गुजर जाते थे लम्हों-पे-लम्हें औ'
हमें वक्त का अंदाज़ ही न चलता था,
पर अब है फुरसत कहाँ जो हम,
वक्त निकालें यारों खातिर|
तब होती थी गुफ्तगू अक्सर -
दिन कट जाते थे बातों ही बातों में,
अब तो महीनों-महीनें गुजर जाते हैं,
औ'हमें फुरसत नहीं पल भर भी-
यारों से एक मुलाक़ात का|
@ Dins'
हमें वक्त का अंदाज़ ही न चलता था,
पर अब है फुरसत कहाँ जो हम,
वक्त निकालें यारों खातिर|
तब होती थी गुफ्तगू अक्सर -
दिन कट जाते थे बातों ही बातों में,
अब तो महीनों-महीनें गुजर जाते हैं,
औ'हमें फुरसत नहीं पल भर भी-
यारों से एक मुलाक़ात का|
@ Dins'