हिन्दू, मुस्लिम, सिख औ' ईसाई,
अल्पसंख्यक, आरक्षण, जातिवाद,
वोट बैंक की फिकर बड़ी,
मुझे ईमान-धरम की क्या पड़ी!
मेरी कुर्सी, मेरा ओहदा,
मुझको तो बस यही है प्यारी,
भुकमरी, गरीबी या हो भ्रष्टाचार,
तेरा हाल तू खुद ही विचार!
चल-अचल संपत्ति क्यों न हो,
कतल का मुझपे दफा ही क्यों न हो,
नीति, नियति पर सदा रहूँगा भारी,
आप ने चुना लो आपका आभारी!
पर करूँगा वही जो मुझ-मन-भाये,
अरे देश की फिकर किसे सताए,
दीवारों के भी कान बड़े है,
नाहक क्यों मेरा मुंह खुलवाये!
कबीर, नानक, रहीम औ' साईं,
आये जाने कितने पीर-गोसाईं,
वो राजकाज का मर्म बदल न सके,
तो तू क्यों मुझपे नाहक तान कसे!
तेरी तो लगे है घोर सामत आई,
इतनी जुर्रत की मांगे मुझसे सफाई,
रहमो करम पर है मेरे ही ये देश,
लगा दे मुझ पर चाहे कितने भी क्लेश!
तू फिकर कर अपनी, अपने नस्लों की,
मेरी तो कई-कई पुश्त तर जाएँगी,
मौका जो दिया है तुमने ये मुझको,
मेरी हर पुश्त तुम्हारा ही गुण गायेंगी!
- दिनेश सरोज
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .
ReplyDelete